- जगन्नाथ का मंदिर किसने बनवाया??
जगन्नाथ यात्रा शुरू होने के साथ-साथ हमारे मन में यह सवाल भी बार-बार आता है कि आखिर जगन्नाथ के मंदिर का निर्माण किसने करवाया था???
तो आइए आज इसी रहस्य से पर्दा उठाते हैं और जानते हैं कि जगन्नाथ के मंदिर के असली निर्माता कौन थे👇👇
उड़ीसा प्रांत में एक इन्द्रदमन नाम का राजा था। वह भगवान श्री कृष्ण जी का अनन्य भक्त था। एक रात्रि को श्री कृष्ण जी ने राजा को स्वपन में दर्शन देकर कहा कि समुद्र के किनारे मेरे
शरीर की राख एक काष्ठ की पेटी (सन्दूक) में बंद है। उसी किनारे पर राख के ऊपर जगन्नाथ
नाम से मेरा एक मन्दिर बनवा दे। श्री कृष्ण जी ने यह भी कहा था कि इस मन्दिर में मूर्ति पूजा नहीं करनी है। केवल एक संत छोड़ना है जो दर्शकों को पवित्रा गीता अनुसार ज्ञान प्रचार करे।
समुद्र तट पर वह स्थान भी दिखाया जहाँ मन्दिर बनाना था। सुबह उठकर राजा इन्द्रदमन ने
अपनी पत्नी को बताया कि आज रात्रि को भगवान श्री कृष्ण जी दिखाई दिए। मन्दिर बनवाने के लिए कहा है। रानी ने कहा शुभ कार्य में देरी क्या? सर्व सम्पत्ति उन्हीं की दी हुई है। उन्हीं को
समर्पित करने में क्या सोचना है? राजा ने उस स्थान पर मन्दिर बनवा दिया जो श्री कृष्ण जी ने स्वपन में समुद्र के किनारे पर दिखाया था। मन्दिर बनने के बाद समुद्री तुफान उठा, मन्दिर
को तोड़ दिया। निशान भी नहीं बचा कि यहाँ मन्दिर था। ऐसे राजा ने पाँच बार मन्दिर बनवाया।
पाँचों बार समुद्र ने तोड़ दिया।
राजा ने निराश होकर मन्दिर न बनवाने का निर्णय ले लिया। यह सोचा कि न जाने समुद्र मेरे से कौन-से जन्म का प्रतिशोध ले रहा है। कोष रिक्त हो गया, मन्दिर बना नहीं। कुछ समय उपरान्त पूर्ण परमेश्वर (कविर्देव) ज्योति निरंजन (काल) को दिए वचन अनुसार राजा इन्द्रदमन के पास आए तथा राजा से कहा आप मन्दिर बनवाओ। अब के समुद्र मन्दिर (महल) नहीं तोड़ेगा।
राजा ने कहा संत जी मुझे विश्वास नहीं है। मैं भगवान श्री कृष्ण (विष्णु) जी के आदेश से मन्दिर बनवा रहा हूँ। श्री कृष्ण जी समुद्र को नहीं रोक पा रहे हैं।
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पाँच बार मन्दिर बनवा चुका हूँ, यह
सोच कर कि कहीं भगवान मेरी परीक्षा ले रहे हों। परन्तु अब तो परीक्षा देने योग्य भी नहीं रहा हूँ क्योंकि कोष भी रिक्त हो गया है। अब मन्दिर बनवाना मेरे वश की बात नहीं। परमेश्वर ने कहा इन्द्रदमन जिस परमेश्वर ने सर्व ब्रह्मण्डां की रचना की है, वही सर्व कार्य करने में सक्षम है, अन्य प्रभु नहीं। मैं उस परमेश्वर की वचन शक्ति प्राप्त हूँ। मैं समुद्र को रोक सकता हूँ (अपने आप को
छुपाते हुए कह रहे थे)।
राजा ने कहा कि संत जी मैं नहीं मान सकता कि श्री कृष्ण जी से भी कोई प्रबल शक्ति युक्त प्रभु है। जब वे ही समुद्र को नहीं रोक सके तो आप कौन से खेत की मूली हो। मुझे विश्वास नहीं होता तथा न ही मेरी वित्तीय स्थिति मन्दिर (महल) बनवाने की है। संत
रूप में आए कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने कहा राजन् यदि मन्दिर बनवाने का मन बने तो मेरे पास आ जाना मैं अमूक स्थान पर रहता हूँ। अब के समुद्र मन्दिर को नहीं तोड़ेगा। यह कह कर
प्रभु चले आए।
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उसी रात्रि में प्रभु श्री कृष्ण जी ने फिर राजा इन्द्रदमन को दर्शन दिए तथा कहा इन्द्रदमन एक बार फिर महल बनवा दे। जो तेरे पास संत आया था उससे सम्पर्क करके सहायता की याचना कर ले। वह ऐसा वैसा संत नहीं है। उसकी भक्ति शक्ति का कोई वार-पार नहीं है।
राजा इन्द्रदमन नींद से जागा, स्वपन का पूरा वृतान्त अपनी रानी को बताया। रानी ने कहा प्रभु कह रहे हैं तो आप मत चूको। प्रभु का महल फिर बनवा दो। रानी की सद्भावना युक्त वाणी
सुन कर राजा ने कहा अब तो कोष भी खाली हो चुका है। यदि मन्दिर नहीं बनवाऊंगा तो प्रभु अप्रसन्न हो जायेंगे। मैं तो धर्म संकट में फँस गया हूँ। रानी ने कहा मेरे पास गहने रखे हैं। उनसे
आसानी से मन्दिर बन जायेगा। आप यह गहने लो तथा प्रभु के आदेश का पालन करो, यह कहते हुए रानी ने सर्व गहने जो घर रखे थे तथा जो पहन रखे थे निकाल कर प्रभु के निमित अपने पति
के चरणों में समर्पित कर दिये। राजा इन्द्रदमन उस स्थान पर गया जो परमेश्वर कबीर जी ने बताया था। कबीर प्रभु अर्थात् अपरिचित संत को खोज कर समुद्र को रोकने की प्रार्थना की। प्रभु कबीर जी ने कहा कि जिस तरफ से समुद्र उठ कर आता है, वहाँ समुद्र के किनारे एक चौरा (चबूतरा) बनवा दे। जिस पर बैठ कर मैं प्रभु की भक्ति करूँगा तथा समुद्र को रोकूँगा। राजा ने एक बड़े पत्थर को कारीगरों से चबूतरा जैसा बनवाया, परमेश्वर कबीर उस पर बैठ गए। छठी बार मन्दिर बनना प्रारम्भ हुआ।
इस प्रकार कबीर परमात्मा ने अपनी समर्थता का परिचय देते हुए जगन्नाथ के मंदिर का निर्माण करवाया।
वह कबीर चौरा आज जगन्नाथ पूरी में विद्यमान है जहां पर बैठकर कबीर साहिब ने समुद्र को जगन्नाथ पूरी के मंदिर को तोड़ने से रोका था।
कबीर साहेब के आदेश अनुसार आज भी उस मंदिर में छुआछूत जैसी कोई चीज नहीं है। हर वर्ग, जाति तथा धर्म के लोग वहां एक साथ बैठकर भोजन करते है।
जगन्नाथ मन्दिर में पवित्र गीता के ज्ञान का गुणगान होना ही श्रेयकर है अन्यथा जगन्नाथ जी के दर्शन मात्र, रथयात्रा निकालने या खिचड़ी प्रसाद खाने से कोई लाभ नहीं, क्यूंकि यह साधना वेद या शास्त्र में वर्णित नहीं है इसलिए शास्त्र विरुद्ध होने से व्यर्थ है।( गीता अध्याय 16 मंत्र 23 - 24)

वर्तमान में संत रामपाल जी महाराज जी ऐसे सच्चे संत हैं जो हमें पवित्र शास्त्रों में वर्णित भक्ति विधि बताते हैं जिससे इस मनुष्य जीवन में तो हमें लाभ तो मिलता ही है साथ में मोक्ष भी मिलेगा। संत रामपाल जी महाराज द्वारा बताई गई सद्भक्ति हमारी पवित्र शास्त्रों में वर्णित है और पवित्र शास्त्रों में जिस पूर्ण संत के बारे में बताया गया है वह पूर्ण संत कोई नहीं बल्कि संत रामपाल जी महाराज जी ही है। तो मानव समाज से प्रार्थना है कि आप भी संत रामपाल जी महाराज जी से नाम दीक्षा लेकर अपना मनुष्य जीवन सफल बनाएं।
मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले न बारम्बार |
जैसे तरुवर से पत्ता टूट गिरे, बहुर न लगता डार ||
2 Comments
👍👍
ReplyDeleteInformative post
ReplyDeleteyou come and support me, we will make this earth heaven