क्या कृष्ण भक्त नहीं थी मीरा? कौन था मीरा का असली कृष्ण? कौन था उसका मोहन-मुरारी? | Untold Story of MeeraBai

क्या कृष्ण भक्त नहीं थी मीरा? कौन था मीरा का असली कृष्ण? कौन था उसका मोहन-मुरारी? | Untold Story of MeeraBai


मीरा: 
मीरा जिन्हें आमतौर पर सगुण ईश्वर कृष्ण की भक्ति का दृढ़ स्तंभ माना जाता रहा है, परंतु मीरा ने राजसी परिवार से होने के बावजूद समाज में व्याप्त विषमताओं का तिरस्कार करके एक निम्न जाति के संत रविदास को अपना गुरु बनाया।


रोचक तथ्य यह भी है कि संत रविदास जी निर्गुण भक्तिधारा के संत थे फिर मीरा ने उन्हीं को अपना गुरु क्यों चुना ?

आज तक आपने मीराबाई के बारे में सिर्फ इतना ही जाना है कि उन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति की थी और अंत में वह श्री कृष्ण की मूर्ति में समा गई थी, 
आज की इस mysteries blog में हम इन्हीं तथ्यों का विश्लेषण करेंगे।


जीवन परिचय

मीराबाई का जन्म सन 1498 ई. में पाली के कुड़की गांव में में दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर हुआ। मीराबाई का जन्म एक राजपूत जाति में हुआ था और मीरा बचपन से ही धार्मिक विचार वाली थी। 
मीराबाई ने बचपन से ही श्री कृष्ण की भक्ति की थी। जिस समय महिलाओं के घर से बाहर जाने पर प्रतिबंध था उस समय भी मीराबाई ने लोगों की एक नहीं सुनी और मंदिर में जाकर श्री कृष्ण की भक्ति करती थी।
फिर मीरा बाई का विवाह राजा से हो गया। राजा भी धार्मिक विचार वाले थे तो उन्होंने मीरा को कभी भी मंदिर में जाने से नहीं रोका अपितु लोक चर्चा से बचने के लिए मीरा के साथ तीन चार नोकरानी भेजने लगे। 


कुछ वर्ष पश्चात मीरा के पति की मृत्यु हो गई और देवर राज गद्दी पर बैठ गया। उसने कुल के लोगों के कहने पर मीरा को मंदिर में जाने से मना किया परंतु मीरा बाई नहीं मानी जिस कारण से राजा ने मीरा को मारने का षड्यंत्र रचा। राजा ने सोचा कि ऐसी युक्ति बनाई जाए जिससे मीरा मर भी जाए और बदनामी ना हो। राजा ने एक सपेरे वाले से कहा कि ऐसा सर्प लाकर दे कि डिब्बे को खोलते ही खोलने वाले को डंक मारे और व्यक्ति मर जाए। ऐसा ही किया गया। राजा ने अपने बेटे के जन्मदिन बनाया जिसमें रिश्तेदार व अन्य गणमान्य व्यक्तियों को आमंत्रित किया गया। बांदी से कहकर एक आभूषण वाले डब्बे में सर्प को रखकर मीराबाई को भिजवा दिया और आदेश दिया कि मीरा को कहना कि यह बेशकीमती हार गले में पहन ले नहीं तो रिश्तेदार कहेंगे कि भाभी को अच्छी तरह नहीं रखता। मीरा के लिए तो वह हार मिट्टी के बराबर था लेकिन मेरा ने विचार किया यदि मैं हार नहीं पहनूंगी तो व्यर्थ का झगड़ा होगा यह सोचकर बांदी के सामने ही उस डब्बे को खोलो और उसमें से हीरे-मोतियों का बना हुआ हार था। 
राजा का उद्देश्य था कि आज सर्प डंक से मीरा की मृत्यु हो जाएगी तो सबको विश्वास हो जाएगा कि राजा का कोई हाथ नहीं है। लेकिन राजा की यह योजना विफल रही।
फिर राजा ने सोचा कि अब की बार मीरा विष मैं सबके सामने पिलाऊंगा, नहीं पिएगी तो सिर काट दूंगा। एक सपेरे से कहा कि ऐसा भयंकर विष ला दे जिसे जीभ पर रखते ही व्यक्ति मर जाए। राजा ने मीरा से कहा यह विष पी ले अन्यथा तेरी गर्दन काट दी जाएगी। मीरा ने सोचा गर्दन काटने में तो पीड़ा होगी विष पी लेती हूं। मीरा ने विष का प्याला परमात्मा को याद करके पी लिया और मीरा बाई को कुछ भी नहीं हुआ। राजा ने उस सपेरे वाले को वापस बुलाया और कहा कि नकली विष लाया है सपेरे वाले ने कहा कि वह प्याला कहां है और राजा के सामने ही उसी प्याले में दूध डालकर एक कुत्ते को पिलाया तो कुत्ता दूसरी बार जीभ भी नहीं लगा पाया था वही मर गया फिर राजा ने देख लिया कि यह किसी तरह भी मरने वाली नहीं है तो उसको मंदिर में जाने से नहीं रोका।


मीरा को सतगुरू शरण मिली


जिस श्री कृष्ण के मंदिर में मीराबाई पूजा करने जाती थी उसी मार्ग में एक छोटा बगीचा था उसमें कुछ घनी छाया वाले वृक्ष भी थे। उसी बगीचे में परमेश्वर कबीर जी तथा संत रविदास जी सत्संग कर रहे थे। मीराबाई ने देखा कि यहां पर परमात्मा की चर्चा या कथा चल रही है कुछ देर सुनकर चलते है। 
परमेश्वर कबीर जी ने संक्षिप्त में सृष्टि रचना का ज्ञान सुनाया कहा कि श्री कृष्ण जी यानी श्री विष्णु जी से भी ऊपर अन्य सर्वशक्तिमान परमात्मा है। अगर जन्म मरण समाप्त नहीं हुआ तो भक्ति करना न करना समान है। जन्म मरण तो श्री कृष्ण जी का भी समाप्त नहीं हुआ, उनके पुजारियों का कैसे होगा? परमेश्वर कबीर जी के मुख कमल से यह वचन सुनकर परमात्मा के लिए भटक रही आत्मा को नई रोशनी मिली। सत्संग के उपरांत मीराबाई ने प्रश्न किया कि हे महात्मा जी! आपकी आज्ञा हो तो शंका का समाधान करवाऊं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि प्रश्न करो बहन जी।
मीराबाई ने कहा आज तक मैंने किसी से नहीं सुना कि श्री कृष्ण जी से भी ऊपर कोई परमात्मा है, आज आप के मुख से सुनकर मैं दोराहे पर खड़ी हो गई हूं। मैं मानती हूं कि संत झूठ नहीं बोलते। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि आपके धार्मिक ज्ञानी गुरुओं का दोष है जिन्हें स्वयं ज्ञान नहीं था कि आपके सतग्रन्थ क्या ज्ञान देते हैं? 
श्रीमद् देवी भागवत पुराण की तीसरे स्कंद में श्री विष्णु जी स्वयं स्वीकार करते हैं कि मैं विष्णु, ब्रह्मा तथा शंकर नाशवान है हमारा आविर्भाव यानी जन्म तथा तिरोभाव यानी मृत्यु होती रहती है। हम अविनाशी नहीं है।
मीराबाई बोली है महाराज जी भगवान श्रीकृष्ण मुझे साक्षात दर्शन देते हैं मैं उनसे संवाद करती हूं। कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि मीराबाई जी आप एक काम करो भगवान श्री कृष्ण जी से ही पूछ लेना कि आप से ऊपर भी कोई मालिक है। वह देवता है कभी झूठ नहीं बोलेंगे।
रात्रि में मीराबाई ने भगवान श्री कृष्ण जी का आह्वान किया। त्रिलोकीनाथ प्रकट हुए। मीराबाई ने अपनी शंका समाधान के लिए निवेदन किया कि हे प्रभु! क्या आप से ऊपर भी कोई परमात्मा है?  एक संत ने सत्संग में बताया है। श्री कृष्ण जी ने कहा कि मीरा परमात्मा तो है परंतु वह किसी को दर्शन नहीं देता हमने बहुत समाधि व साधना करके देख ली। मीरा बाई ने सत्संग में परमात्मा कबीर जी से सुना था कि उस पूर्ण परमात्मा का मैं प्रत्यक्ष दर्शन कराऊंगा। सत्य साधना करके उसके पास सतलोक में भेज दूंगा। मीराबाई ने श्री कृष्ण जी से फिर प्रश्न किया क्या आप जीव का जन्म मरण समाप्त कर सकते हो? 
श्री कृष्ण जी ने कहा असंभव है। लेकिन परमेश्वर कबीर जी ने कहा था कि मेरे पास ऐसा भक्ति मंत्र है जिससे जन्म मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है। वह परमधाम प्राप्त होता है इसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहां है। उसी एक परमात्मा की भक्ति करो।
मीराबाई ने कहा कि हे भगवान श्री कृष्ण जी! संत जी कह रहे थे कि मैं जन्म मरण समाप्त कर देता हूं। अब मैं क्या करूं? मुझे तो पूर्ण मोक्ष की चाह है। श्री कृष्ण जी बोले मीरा आप उस संत की शरण ग्रहण करके अपना कल्याण कराओ। मुझे जितना ज्ञान था वह बता दिया।

अगले दिन मीरा बाई मंदिर नहीं जाकर सीधे संत जी के पास गई और श्री कृष्ण जी के साथ हुई वार्ता परमेश्वर कबीर जी के साथ साझा की।
और परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की। उस समय छुआछूत चरम पर थी। ठाकुर लोग अपने को सर्वोत्तम मानते थे। मीराबाई की परीक्षा के लिए परमात्मा ने संत रविदास जी की ओर इशारा करते हुए कहा कि वह बैठे संत जी। उनसे जाकर दीक्षा ले। मीरा जी तुरंत रविदास जी के पास जाकर बोली संत जी! दीक्षा देकर कल्याण करो। गुरु संत रविदास जी ने बताया कि बहन जी! मैं चमार जाति से हूं आप ठाकुरों की बेटी हूं। आपके समाज के लोग आपको बुरा भला कहेंगे। जाति से बाहर कर देंगे। आप विचार करें। मीराबाई बहुत पुण्य आत्मा थी परमात्मा के लिए मर मिटने के लिए सदा तत्पर रहती थी। मीरा ने कहा कि कल को कुत्तिया बनूंगी तब यह ठाकुर समाज मेरा क्या बचाव करेगा? आप जी दीक्षा देकर कल्याण करो।
मीराबाई का परमात्मा के प्रति समर्पित भाव देखकर परमेश्वर कबीर जी ने संत रविदास जी के माध्यम से मीराबाई को प्रथम मंत्र केवल पांच नाम दिए।
मीराबाई पहले तो दिन में ही घर से बाहर जाती थी फिर राती में भी सत्संग में जाने लगी क्योंकि सत्संग दिन में कम और रात्रि में अधिक होता था। यह सब देख राणा और जल भुन गया और मीरा को समझाने के लिए उसकी माता जी को बुलाया और मीरा को समझाने के लिए कहा। कहा कि इसने हमारी इज्जत का नाश कर दिया। बेटी माता की बात मान लेती है। मीरा की माता ने मीरा को समझाया।
मीरा ने उसका तुरंत उत्तर दिया :-


सतसंग में जाना मीरां छोड़ दे ए, आए म्हारी लोग करैं तकरार।
सतसंग में जाना मेरा ना छूटै री, चाहे जलकै मरो संसार।।टेक।।
थारे सतसंग के राहे मैं ऐ, आहे वहाँ पै रहते हैं काले नाग,
कोए-कोए नाग तनै डस लेवै।
जब गुरु म्हारे मेहर करैं री, आरी वै तो सर्प गंडेवे बन जावैं।।1।।
थारे सतसंग के राहे में ऐ, आहे वहाँ पै रहते हैं बबरी शेर, कोए-कोए शेर तनै खा लेवै।
जब गुरुआं की मेहर फिरै री, आरी व तो शेरां के गीदड़ बन जावैं।।2।।
थारे सतसंग के बीच में ऐ, आहे वहां पै रहते हैं साधु संत,
कोए-कोए संत तनै ले रमै ए।
तेरे री मन मैं माता पाप है री, संत मेरे मां बाप हैं री,
आ री ये तो कर देगें बेड़ा पार।।3।।
वो तो जात चमार है ए, इसमैं म्हारी हार है ए।
तेरे री लेखै माता चमार है री, मेरा सिरजनहार है री,
आरी वै तो मीरां के गुरु रविदास।।4।।

शब्दार्थ :- मीरा बाई की माता ने कहा कि हे मीरा! तू सत्संग में जाना बंद कर दे। संसार के व्यक्ति हमारे विषय में गलत बातें करते हैं। मीरा ने कहा कि हे माता! मैं सत्संग में जाना बंद नहीं करूँगी, संसार भले ही ईर्ष्या की आग में जलकर मर जाए। माता ने मीरा को भय कराने के लिए बताया कि जिस रास्ते से तू रात्रि में सत्संग सुनने के लिए जाती है, उस रास्ते में सर्प तथा सिंह रहते हैं। वे तुझे मार देंगे। मीरा ने उत्तर दिया कि मेरे गुरू जी इतने समर्थ हैं, वे कृपा करेंगे तो सिंह तो गीदड़ की तरह व्यवहार करेंगे और सर्प ऐसे निष्क्रिय हो जाएँगे जैसे गंडेवे प्राणी होते हैं जो सर्प जैसे आकार के होते हैं, परंतु छः या आठ इंच के लंबे और आधा इंच गोलाई के मोटे होते हैं, वे डसते नहीं। मीरा की माता ने फिर कहा कि सत्संग सुनने वाले स्थान पर कुछ युवा भक्त पुरूष भी रहते हैं। कोई तेरे को कहीं ले जाएगा और गलत कार्य करेगा। मीरा ने उत्तर दिया कि हे माता! आपके मन में दोष है। इसीलिए आपके मन में ऐसे विचार आए हैं। हे माता! वे संत व भक्त तो मेरे माता-पिता के समान हैं। वे ऐसा गलत कार्य नहीं करते। मीरा की माता ने छूआछात के कारण मीरा को रोकना चाहा, कहा कि हे मीरा! तेरा गुरू रविदास तो अनुसूचित जाति का चमार है।
इससे हम राजपूतों की बेइज्जती हो रही है। सत्संग में जाना बंद कर दे। मीरा ने कहा कि हे माता! आपके विचार से मेरे गुरू जी अनुसूचित जाति के चमार हैं। मेरे लिए तो मेरे परमात्मा हैं। मैं उनकी बेटी, वे मेरे पिता हैं। सत्संग में जाना बंद नहीं होगा।



कुछ वर्ष बाद अपने देवर के अत्याचारों से परेशान होकर मीराबाई घर त्यागकर वृंदावन में चली गई। वहां कबीर परमात्मा की एक साधु के वेश में गए। ज्ञान चर्चा हुई तब मीराबाई को ज्ञान हुआ कि अभी आगे की पढ़ाई शेष है यानी केवल प्रथम मंत्र के जाप से मोक्ष नहीं होगा। कबीर परमात्मा ने मीराबाई को सतनाम की दीक्षा दी और मीरा बाई को वही रूप दिखाया जिस रूप में संत रविदास जी के साथ सत्संग में मिले थे।

मीरा जी का फिर मानव जन्म अब वर्तमान के भक्ति युग में होगा। तीनों नाम की दीक्षा मिलेगी। मोक्ष उसकी मर्यादा पर निर्भर करेगा। यदि आजीवन विश्वास के साथ मर्यादा में रहकर तीनों नामों का जाप करती रही तो मोक्ष निश्चित है। वृंदावन में भी मीरा की आस्था श्री कृष्ण में कुछ-कुछ थी। 

मीराबाई जब घर त्यागकर चली गई थी तो उस क्षेत्र में अकाल मृत्यु, महामारी, अकाल की मार शुरू हो गई। ज्योतिषियों ने बताया कि आप की नगरी से सन्त रुष्ट होकर गया है जिस कारण से यह उपद्रव हो रहा है। समाधान बताया यदि संत जीवित मिल जाए तो वापस मनाकर प्रसन्न करके लाया जाए तो आशीर्वाद देकर सब ठीक कर सकता है। राणा को पता चला कि मीरा संत थी।

मीरा को लाने के लिए मीरा के दो सिपाही जो मीरा के साथ छाया की तरह रहते थे। दोनों मीरा बाई की खोज में निकले। पता लगा कि बहुत सारे सन्त वृंदावन में रहते हैं। वहां मीराबाई मिल गई। मीरा से लौटने की प्रार्थना की। बताया कि राजा के राज्य में उपद्रव हो रहे हैं ब्राह्मणों ने बताया है कि मीरा वापस आएगी तो सब ठीक होगा ।और राणा ने कहा है कि आगे से मीरा को कोई कष्ट नहीं दूंगा। मीरा ने कहा कि भाई अब नहीं जाऊंगी। उन दो सिपाहियों ने कहा यदि आप नहीं चलोगे तो हम प्रतिज्ञा करके आए हैं यदि मीरा जीवित मिल गई तो हम उसे अवश्य लेकर आएंगे। मीरा बोली यदि मैं संसार छोड़कर चली गई होती तब भी तो लौट जाते। सिपाहियों ने कहा फिर तो लौटना ही था। और उसी समय मीरा ने एक तार वाला यंत्र उठाया और परमात्मा की स्तुति करने लगी। आंखों से प्रेम के आंसू बहने लगे, उसी समय श्री कृष्ण जी की मूर्ति में समा गई।


लेकिन मीरा के इतने त्याग और समर्पण के बावजूद भी मीराबाई का जन्म मरण का दीर्घ रोग समाप्त नहीं हुआ क्योंकि वृंदावन में भी मीरा की आस्था श्री कृष्ण में कुछ-कुछ थी। 
केवल कबीर परमात्मा की सत्य साधना तीन बार दीक्षा वाली अधिकारी से लेकर करने से ही जन्म मरण सदा के लिए समाप्त हो सकता है।  
और वर्तमान में संत रामपाल जी महाराज के अतिरिक्त विश्व में किसी के पास भी तीन बार की दीक्षा देने का अधिकार नहीं है।
दीक्षा लेकर जो मर्यादा में रहकर आजीवन भक्ति करेंगे तो मोक्ष में कोई शंका नहीं है।
 इसलिए आपसे निवेदन है कि आप भी संत रामपाल जी महाराज जी को पहचानो और उनके द्वारा बताई गई भक्ति साधना करके अपना मोक्ष करवाओ।

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